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प्रिय,
याद हैं तुम्हे वो लोकल ट्रेन सहरसा से पटना के बीच की कितना हिलती थी यार, कभी कभी तो लगता था आगे वाला डब्बा हमें छोड़ कर आगे ना चले जाए। मालगाड़ी से भी ज्यादा हिचकोले खाती वो ट्रेन का डब्बा जब धगड़ धगड़ करके चलता तो एक मीठा सा डर और अजीब सा आनंद आ जाता था ना तुम्हे किस कदर चिपक के बैठ जाती थी तुम मुझसे। तुम्हारा सामीप्य और भी अधिक गहरा जाता था ना उन चंद घंटो में। तुम्हारी उँगलियों की वो छुअन मैं आज तक नहीं भूल पाया हूँ। वो गुदगुदाता एहसास, वो अजीब सी ख़ुशी कैसे भूल पाऊंगा। अब भी वो यादे किसी काली-सफ़ेद चलचित्र की तरह धुंधली धुंधली सी मेरे यादो में चलती रहती हैं। प्रिय ना तो अब वो छूअन हैं ना ही वो एहसास और अब पैसेंजर ट्रेन की शांति भी अजीब सी धक्का मुक्की में बदल गयी हैं। गाड़ियों की वो मंथर गति अब तेज रफ़्तार की ट्रेन में बदल गयी हैं। छुक छुक करता धुवां अब बिजली के तारों में उलझ कर रह गयी हैं, अब ना तो वो शांति हैं ना शुकून। पटरियों के साथ लगे वो पेड़ भी औधोगीकरण की मार से बेहाल हो दम तोड़ चुके हैं। अब सुबह सुबह ट्रेन में आँख खुलने से चिड़ियों की चहचाहट नहीं सुनाई देती अब बस सुनाई देती हैं ट्रेन का कोरस। अब पटना के पुल से गुजरते हुए या सिमराही घाट से गुजरते हुए गंगा का शुकून भी नहीं मिलता, जैसी मैली गंगा कातर भाव से कह रही हो अब नहीं सहा जाता। प्रिय कितना बदल गया हैं हमारा गाँव, एक छोटा सा क़स्बा जो कभी कोशी के किनारे शांत सा पड़ा रहता था गाड़ियों की धुक-धुक और धुल मिटटी से दब गया हो जैसे। अब आम कोल्ड स्टोरेज से आने लगे हैं, आम की मिठास कोल्ड स्टोरेज की बदबू में दबकर रह गयी हैं। अब रेलगाडी भी रेलगाड़ी नहीं रही अब तो वो पेलमपेल गाडी हो गयी हैं। हा हा हा मुझे पता हैं तुम हँसोगी ये शब्द सुनकर लेकिन अब कुछ ऐसा ही हैं अब, एक 72 सीट वाले डब्बो में हजारो लोग सफ़र करने लगे हैं। दूधिये का आंतक तो अलग ही हैं, अगर इन भीड़ से बचकर अगर कहीं खडकी के पास बैठ भी गए तो दूध और घास की गट्ठर ही दिखाए देंगे। ताज़ी हवा उन हजारो लोगो के पसीनो में दब कर रह जाती हैं। प्रिय कैसे बताऊँ तुम्हे मैं उस यात्रा को, कितना तकलीफदेह और दुखदाई हैं लेकिन फिर भी लोग सफ़र करते हैं इस आश में की उनकी जन्मभूमि पुकार रही होती हैं उन्हें हौले हौले से। और यही शब्द जैसे भर देता हो उनके अन्दर एक अलग जोश एक अलग जज्बा और यही उन्माद उसे जिन्दा रखता हैं उन अंसख्य लोगो के बीच और बस इसलिए नहीं निकल पाती उसी जान उससे क्योंकि मातृभूमि होती हैं उनके आँखों के करीब। प्रिय फिर कभी मिलो तो हम जरुर घूमेंगे फिर से उस मजेदार सफ़र में … मैं और तुम सिर्फ मैं और तुम।
तुम्हारा प्रिय
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