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कल और आज

समदिया
समदिया
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बहुत पहले
होता था एक गाँव
जहाँ सूरज के उगने से पहले
लोग उठ जाते थे
और देर रात तक
अलाव के निचे चाँद
को निहारते थे

बहुत पहले
रमजान में राम और
दीपावली में अली होता था
सब मिल के मानते थे
होली, दिवाली और ईद और बकरीद
फागुन का रंग सब पर बरसता था
नहीं होता था कोई
सम्प्र्यादायिक रंग
ना ही होता था दंगे
और उत्पातो का भय

बहुत पहले
भ्रष्ट नेताओ की
नहीं होती थी पूजा
नहीं ही बहाए जाते थे
किसी अपनों के मौत पर
घडियाली आँशु

और अब

बहुत पहले
सुदर दिखती थी लडकिय
होता था सच्चा प्यार
सच्चे मन से
लोग जानते थे प्रेम की परिभाषा

बहुत पहले
पैसा सब कुछ नहीं होता था
लोग समझते थे मानवता
और समाज की सादगी

और अब
उठते हैं हम दिन ढलने के बाद
और अलाव की जगह हीटर ने ले ली हैं
अब चाँद बादलो में नहीं दीखता
जैसे छुप गया हो जैसे
आलिशान महल के पीछे

और अब
रमजान और होली
हिन्दू मुसलमानों का
होकर रह गया हैं
साम्प्रदायिकता का रंग
सर चढ़ कर बोलने लगा हैं

और अब
साधुओ के भेष में चोर-उचक्के
घूमते हैं
शहर भर में होता है रक्तपात
और दंगाई घूमते है खुले-आम
होती हैं भ्रष्ट नेताओं के पूजा
नैतिकता के नाम पर
सुख चुकी हैं आंशुओ की धार

और अब
बदल गई हैं प्रेम की परिभाषा
नहीं करता कोई सच्चा प्यार
खत्म हो गयी वफ़ा की उम्मीद
हीर-राँझा और शिरी-फ़रियाद
किस्सों में भी अच्छे नहीं लगते

और अब
पैसा ही सब कुछ होता हैं
संबंध और मानवता से
खत्म हो गयी समाज से सादगी
और खत्म हो गया आदमी
आदमियत के संग …

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