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बिहार शिक्षा – इतिहास और वर्तमान सच

समदिया
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उच्च शिक्षा के लिए जिस तरह बिहार में हाय तौबा मच रही हैं, और केंद्रीय विश्वविद्यालय के लिए जिस तरह नितीश जी की जोर आजमाइश चल रही रही हैं, उससे एक बात तो हमें सोचने पर मजबूर कर दिया हैं, की क्या इससे बिहार में शिक्षा के कुछ सुधार होगा?, क्या बिहार में शिक्षा के दिन बहुरेंगे?, क्या ‘बेरोजगार पैदा करने की फैक्ट्री’ के नाम से मशहूर हमारे विश्वविद्यालयो को छुटकारा मिलेगा? क्या फिर से बिहार शिक्षा में वही मुकाम हासिल कर पायेगा जहाँ कभी ये हुआ करता था। क्या बिहार विकास का का नारा देने वाले शिक्षा के क्षेत्र में भी इसे अगली पंक्ति में खड़ा कर पायेंगे। ऐसे बहुत सारे सवाल हैं….
बिहार में अगर शिक्षा के इतिहास पर अगर एक नज़र डाले तो इसे सिर्फ कुचलने वाले ही मिलेंगे, उँगलियों पर गिनने वाले ही ऐसे मिलेंगे जिसने बिहार में शिक्षा के लिए कुछ काम किया हो।
सन् १२१३ में बख्तावर खिलीजी ने नालंदा विश्वविद्यालय को बर्बाद कर बिहार के शिक्षा की संस्कृति को तबाह ही कर डाला, फिर अंग्रेजो की बारी आई और उसने ऐसी नीति बनाई की बागी बिहार शिक्षा के क्षेत्र में काफी पीछे छुट गया
। अंग्रेजो ने जैसी नीव रखी थी वैसी ही इमारत भी खड़ी हुई और आजादी के बाद राजनैतिक अराजकता और अफरा-तफरी ने इसे गर्त की और धकेल दिया यहाँ तक की पटना विश्वविद्यालय जो की देश का सातवां पुराना विश्वविद्यालय हैं की भी गरिमा ख़त्म हो गयी। रही सही कसर बाद में संयुक्त विधायक दल सरकार और बिहार आन्दोलन ने पूरी कर दी। जगन्नाथ मिश्र, महामाया प्रसाद से लेकर लालू प्रसाद यादव तक पालतुकरण की नीति अपनाकर विश्वविद्यालयो को अपना राजनैतिक चारागाह बना दिया। शिक्षा में व्याप्त राजनीती और गुंडाराज को देखकर जाने माने शिक्षाविद ने डॉ वी एस झा ने तो यहाँ तक कह दिया की ” बिहार में महाविद्यालय स्थापित करना एक लाभप्रद धंधा हैं बशर्ते की संस्थापक राजनैतिक बॉस हो या जनता की नज़र में उनकी छवि के गुंडे की हो।”

“एशिया आज जिसे गर्व से प्रदर्शित कर सकता हैं, नालंदा उसका प्रतिनिधि हैं” – न्युयोर्क टाइम्स

१९६७ में जब महामाया प्रसाद मुख्यमंत्री थे और बिहार में पहली बार गैर कोंग्रेसी सरकार बनी थी उस समय समाजवादी पार्टी के नेता कर्पूरी ठाकुर ने जो उस समय शिक्षा मंत्री थे एक अजीब सा आदेश दे दिया उनके अनुसार अब “मैट्रिक में पास होने के लिए अंग्रेजी अनिवार्य विषय नहीं होगी”। इसे लोगो ने “पास विदाउट इंगलिश” का कर्पूरी डिविजन नाम दिया फलतः शिक्षा में अंग्रेजी का स्तर इतना गिर गया जो आज भी देखने को मिलता हैं
वैसे १९७२ में जब कोंग्रेस के केदार पाण्डेय की सरकार आई तो उन्होंने शिक्षा के गिरते स्तरों की तरफ ध्यान दिया और कर्पूरी राज के जिगर के टुकड़े ( कर्पूरी ठाकुर ने छात्रो के संबोधन के लिए ये नाम दिया था ) को दूर हटाने के लिए और विश्वविद्यालय से गुंडाराज खत्म करने के लिए कुछ ठोस और साहसिक कदम उठाये
। उनकी सरकार ने विश्वविद्यालय का जिम्मा अपने हस्तगत किया और सख्त आई.ए.एस. अधिकारियो को कुलपति और रजिस्टार के पद पर बहाल किया। इससे परीक्षाये और कक्षाए बंदूको के साए में होने लगी और शिक्षा की संस्कृति पटरी पर लौटने लगी। लेकिन शायद बिहार की शिक्षा को किसी की नज़र लग गयी थी या कुछ और इसलिए संपूर्ण क्रांति का दौर आ गया और शिक्षा की व्यवस्था संपूर्ण क्रांति में दब कर रह गयी।


“केवल एक विकसित और शिक्षित बिहार ही विकसित भारत का प्रतिनिधि करेगा” – अब्दुल कलाम ( पूर्व राष्ट्रपति )


फिर १९८० में जब जगन्नाथ मिश्र सत्ता में आये तो उन्होंने पहला काम किया उर्दू को राजभाषा का दर्जा देने का
। बिहार देश का पहला ऐसा राज्य बन गया जिसने यह कदम उठाया था। जगन्नाथ मिश्र के इस कदम ने जहाँ मैथिली को बहुत पीछे धकेल दिया वही मुस्लिम के बीच वो हीरो बन गए। आज अगर बिहार में मैथिली की हालत बदतर हैं तो इसका कही कही नहीं ठीकरा जगन्नाथ मिश्र को भी जाता हैं
फिर लालू का दौर आया और उसने चरवाहा विद्यालयों के रूप में दलित समाज के लोगो को आगे उठाने का काम किया,
उस समय का नारा था कि घोंघा चुनने वालों, मूसा पकड़ने वालों, गाय-भैंस चराने वालों, शिक्षा प्राप्त करो । लेकिन उनकी भी ये योजना राजनैतिक अस्थिरता और सत्ता परिवर्तन के कारण खटाई में पड़ गयी और शिक्षा की हालत पुनः बदतर हो गयी
फिर आया नितीश राज, विकास के नाम पर मिले वोट से लोगो की उम्मीदे जगी, उन्हें एक नया विकाश पुरुष नज़र आया लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में फिर भी उस कदर काम नहीं हुआ जिस कदर होना चाहिए
। बदलते बिहार के परिवेश में या यूँ कहे की नितीश राज में जिस तरह बिहार नित नए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय रिकॉर्ड तोड़ रहा हैं उसमे जनता को शिक्षा के लिए भी कुछ उम्मीदे जगती नज़र आ रही थी। एक तरफ नितीश ने पंचायतो में शिक्षा के लिए शिक्षा मित्रो की नियुक्ति कर रोजगार के अवसर तो बढ़ा दिए लेकिन नियुक्ति के समय हुई धांधली और अनियमितताओ ने शिक्षा के स्तर को इस कदर गिरा दिया की अभी भी कुछ शिक्षक ढंग से सन्डे, मंडे भी नहीं लिख पाते हैं, विद्यर्थियो का क्या हाल होगा ये तो पूछिये ही मत

वर्तमान शिक्षा की अगर मैं बात करू तो उच्च शिक्षा के लिए बिहार पुरे भारत में ऐसा राज्य हैं जहाँ के विद्यार्थियों पर बाहरी राज्यों के गैर सरकारी संस्थान अपनी गिद्ध दृष्टि जमाये रखते हैं। एक अध्यन के मुताबिक उच्च शिक्षा के लिए प्रतिवर्ष एक लाख छात्र बिहार से बाहरी राज्यों जैसे महाराष्ट्र, राजस्थान, और कर्नाटक आदि में पलायन कर रहे हैं जबकि  कहने को भारत के दस प्राचीन विश्वविद्यालय में से तीन हमारे यहाँ हैं। पलायन कर रहे छात्रो के अगर रहने, खाने, पहनने और मूलभूत सुविधाओ पर हुए खर्च को छोड़ भी दे तो भी प्रति छात्र ७०,००० रूपये सालाना ( जो की कुछेकू राज्यों की इंजीनियरिंग में प्रवेश के लिए सरकार फीस हैं ) के हिसाब से ७०० करोड़ होती हैं (ज्ञात हो की इसके अलावा संस्थान डोनेशन के नाम पर भी काफी चंदा वसूलती हैं) बिहार से बाहर चली जाती हैं। इतना ही पैसा प्रवेश दिलाने के नाम पर शिक्षा के दलाल और ठग उगाही कर लेते हैं। इसके अलावा कोचिंग, गैर सरकारी संस्थान, और पब्लिक स्कूलों का यह गढ़ हैं, वैसे आंकड़े बताते हैं की आज तक इन कोचिंग संस्थानों में ( एकाध को छोड़ दे ) कोई भी छात्र राष्ट्रिय या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई प्रतियोगिता नहीं झटक सका हैं। सरकारी संस्थानों की अगर बात करे तो इनमे से ज्यादातर भगवान् भरोसे ही हैं। कुछ में व्यवस्थाओ का रोना है तो कुछ में शिक्षको का। राज्य के कई कॉलेज में चल रहे बीसीए पाठ्यक्रम के लिए कंप्यूटर विभाग की अपनी लैब तक नहीं हैं, कई विभागों में लैब तो हैं लेकिन वो भी बस नाम के उनमे ना तो प्रयोगिक सामान हैं ना ही अच्छे केमिकल। यही हाल पुस्तकालयों के संग भी हैं। बिहार के हरेक विश्वविद्यालयो को अपने आप में पुस्तकालय होने का गौरव तो प्राप्त हैं लेकिन इनकी हालत बद से भी बदतर हैं। हवादार कमरे और बैठने की व्यवस्था तो छोड़ दीजिये, धुल धूसरित आलमारियो और चूहे की कतरनों से सजी किताबो ही देखने को मिलती हैं। कुछेकू सोधार्थियो और दान के फलस्वरूप चलने वाले इस पुस्तकालयो में नई किताबो का सर्वथा आभाव रहता हैं। शिक्षा का आलम ये हैं की मधेपुरा जिले में स्थापित बी.एन. मंडल यूनिवर्सिटी अकेले पाँच जिलो का बोझ उठाये हुए हैं।
एक तरफ देश की तकनिकी और उच्च शिक्षा के हजार संस्थानों में ओम्बुड्समैन की नियुक्ति की केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री की घोषणा अभी मूर्त रूप नहीं ले सकी हैं। जो शिकायतों के निपटारण  एवं भ्रस्टाचार को रोकने में मदद करेगा, और दूसरी तरफ केंद्रीय विश्वविद्यालयो और आईआईटी को लेकर हो राजनीती जिसके वजह से इसमें देरी हो रही हैं चिंता का विषय हैं। माननीयो को इसपर ध्यान देना चाहिए वर्ना बिहार विकास की रफ़्तार जिस तरह से पटरी पर लौटने के बाद फुल स्पीड से चल रही हैं, कही आगे जाकर शिक्षा के कारण औंधे मुँह न गिर पड़े।

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