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क्या विलुप्त हो जाएगी “मैथिली”

समदिया
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सुनने में अजीब सा लगे और शायद थोडा बुरा भी, लेकिन भारतीय जन भाषाई सर्वेक्षण की पहली रिपोर्ट से तो कुछ ऐसा ही लगता हैं। करीब तीन सौ से भी अधिक भारतीय भाषा या तो दम तोड़ चुकी हैं या भाषाविदो के आईसीयु में पड़े अपनी अंतिम साँस गिन रही हैं। ना ही मिडिया का ध्यान इस और जा रहा हैं ना ही पश्चिमी सभ्यता के रंग में रंगी युवाओ का। भाषा मानव संचार का मूल आधार हैं, लेकिन फिर भी इस और इस तरह की निर्मोही दृष्टि से ऐसा लगता हैं जैसे 2150 से भी ज्यादा समृद्ध भाषाई क्षेत्र वाले इस देश में इसका कोई महत्व ही ना हो।
कोई ८० वर्ष पहले भारत का पहला भाषाई सर्वेक्षण हुआ था वो भी अंग्रेज अधिकारी जोर्ज ग्रियर्सन की अगुवाई में, जिसके अनुसार मैथिली बिहार और अब के झारखण्ड के कुछ हिस्सों में प्रमुखता से बोली जाने वाली भाषा हैं। जो की अब मानवी स्वार्थ और राजनैतिक कलह के कारण विभिन्न भाषा (जो की क्षेत्र विशेष के आधार पर विकसित हो रही हैं) में बटती जा रही हैं। एक अखंड मैथिली टूट-टूट कर अंगिका, बज्जिका और ना जाने क्या क्या बन गयी हैं। वैसे ग्रियर्सन के बाद इस भाषा की सुध लेने वाला कोई नहीं बचा, कुछ खड़े भी हुए तो राजनैतिक आस्थिरता और कलह के कारण आपस में लड़-लड़ कर कर रह गए। अब करीब आठ दशक बाद भारतीय जन भाषाई सर्वेक्षण ( पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ़ इंडिया) ने उस पर थोडा काम किया हैं और छह खंडो में अपनी पहली रिपोर्ट प्रकाशित की हैं, जो की भारतीय भाषा के कुछ अनछुए पहलु को उजागर करती हैं। सर्वे की अध्यक्ष गणेश देवी के अनुसार भारत की कोई २० प्रतिशत भाषा विलुप्त हो चुकी हैं।अभी तक सिर्फ ग्यारह राज्यों में हुए सर्वेक्षण का यह अधुरा रिपोर्ट बताता हैं की करीब ३१० से ज्यादा भाषा विलुप्त हो चुकी हैं और छह सौ से ज्यदा भाषा अपनी अंतिम पड़ाव में हैं। यह सब देख सुन कर लगता हैं की कहीं अगला नंबर अपना तो नहीं? अटल जी के अथक प्रयासों के फलस्वरूप मैथिली सविंधान में आठवी अनुसूची में जगह पाने में कामयाब तो हो गया लेकिन बहुभाषी संस्कृति के चक्कर में पद कर हम इस भाषा से दूर तो नहीं जा रहे हैं।
जनगणना के अनुसार भी भारतीय भाषा का ग्राफ देखे तो वो भी कम चौकाने वाले नहीं हैं, १९६१ की जनसँख्या के अनुसार १६५२ मातृभाषाए दर्ज की गयी थी जो की १९७१ के जनगणना तक सिर्फ १०९ रह गयी जो की बेहद शर्मनाक हैं। अकेले बिहार और झारखण्ड के वो क्षेत्र जिसे मैथिलो का गढ़ कहा जाता हैं ने अपनी मातृभाषा हिंदी दर्ज करा रखी हैं जबकि उस सूचि से गायब ही हो गयी हैं। हमारे बीच भाषाई अंतराल इतना बढ़ गया हैं की हम किसी भी भाषा ( यहाँ तक की अपनी मातृभाषा) का एक भी वाक्य पूरा-पूरा और सुद्ध-सुद्ध लिख बोल या पढ़ नहीं सकते।
भाषा के सम्बन्ध में मिल रही लगातार चौकाने वाली जानकारी कही ये चेतावनी तो नहीं दे रही की अलग नंबर हमरा हैं। क्या मैथिली भी इतिहास बनकर रह जाएगी, कही ऐसा तो नहीं की मैथिली के बारे भी ऐसा कहा जाए की ये कभी अस्त्तिव, चर्चा और चलन में मौजूद थी ! जरा सोचिये…..?
“मैथिल भए क जे नै बजय ये मैथिली”
” मोन होए अछि हुनकर कान पकड़ी ऐठ ली”
मेरी ये रचना मैथिली के प्रसिद्ध वेबसाईट इसमादपर भी प्रकशित हो चुकी हैं देखने के लिए यहाँ क्लिक कर -:

की विलुप्त भ जाएत “मैथिली”

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